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क्यों नहीं स्वीकार्य महिला बॉस?

आर्यधर्म
आर्यधर्म
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क्यों स्वीकार्य नहीं महिला बॉस सुनने में ऐसा लगता है जैसे– क्यों नहीं उड़ सकता खच्चर हवा में? क्यों नहीं चिंघाड़ सकती मछली हाथी की तरह? क्यों नहीं गधे के होते हैं सींघ, क्यों नहीं बर्फ होती है अंगारे जैसी गर्म, क्यों नहीं दूध होता है खून जैसा लाल, क्यों नहीं चन्द्रमा हो सकता तीक्षण सूर्य की तरह? प्रकृति को चुनौती देने ईश्वर को नीचा दिखाने और अपनी मनमानी करने में मनुष्य कई जगह सीमायें लांघ रहा है. ईश्वर की बनायीं वास्तविक दुनिया में बस योग्य ही पात्र होता है, श्रेष्ठ ही विजयी होता है. पर मनुष्य की बनायीं दुनिया में कुछ भी ऊटपटाग हो सकता है, और कई बार अत्यंत ही अजीबोगरीब देखने को मिल सकता है जो कई बार अत्यंत विनाशकारी साबित भी हो ता हैं. आज समाज को निर्देशित करने वाले ऐसे लोग हैं जो ज्ञान (सामान्य भी)और तत्व अनुभव में शून्य हैं और आज सामने चमाचम चमकने वाली मीडिया में ऐसे ही ‘आधे अधूरे अनपढ़ महाज्ञानी’ बहुतायत में हैं. आखिर ये मीडिया किस की बात करता है? वो बात करता है उन सभी वस्तुओ की जिसमे उसका अपना कोई व्यावसायिक स्वार्थ होता है, जिसके साथ उसके आर्थिक लाभ जुड़े होते हैं, जिसका बाजार होता है जो चीज बिकती है या जिससे उसका कोई मतलब सधता हो.. खैर.. मीडिया और वास्तव में मीडिया में मौजूद (महिला-वादी) ज्ञानियों का फैलाया झूठ का महाजाल आज फैलता ही जा रहा है, इन ज्ञानियों को किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता ही नहीं वो आज सब कुछ जानते हैं बस किसी विशेषज्ञ से दो बात कर लेने पर वो खुद ही महा ज्ञानी हो जाते हैं… चाहे वो कोई अन्तरिक्ष विज्ञानी हो, कोई ज्योतिष, कोई इन्ज्निअर या फिर कोई डॉक्टर यानि चिकित्सक! पर हर बात किसी हिंदी फिल्म की स्क्रिप्ट जितनी सीधी नहीं होती और न ही चटपटी मसालेदार.. ये हमें सोचना चाहिए.

स्त्री क्या पुरुष के बराबर है? कत्तई नहीं.. और हो भी नहीं सकती.. और न ही होनी चाहियें…. अगर उनको बराबर होना था तो आज से कुछ सौ करोड़ साल पहले द्वि लिंगी जन्तुओ की उत्पत्ति नहीं होती. एक पुरुष अपनी विशिष्ट गुण एवं वृत्ति के साथ और स्त्री यानि मादा बिलकुल ही विपरीत गुणी, इस प्रकृति में नहीं पाए जाते. केवल शरीर यानि मेडिकल शरीर क्रिया विज्ञानं की दृष्टि में ही देखें और देखें उद्भव आधारित दोनों जीवो के जीनोटीपिक और फेनोटीपिक गुणों को मापें तो पाया जायेगा की पुरुष को शारीरिक काम के लिए ही बनाया गया है और स्त्री को (मात्र) प्रजनन के लिए. पुरुष के शरीर में ५०-१०० % अधिक मांस पेशी, अधिक प्रोटीन, अधिक ताकत, अधिक विकसित मष्तिष्क, अधिक आक्रामक व्यवहार, अधिक गति, तेज निर्णय लेने की क्षमता इत्यादि दिया है वहीँ स्त्री को मात्र २० या २५ साल की सक्रिय आयु तक के लिए ही प्रकृति ने बनाया है और पुरुष अगर जनन शक्ति की ही बात करें तो अपनी पूरी उम्र यानि ९० से १०० साल तक पुरुष बना रह सकता है. स्त्री कहीं कम वजन, मृदु, निर्बल, अधिक समय और लम्बा श्रम करने में अक्षम, वसा से भरा कम मेहनत कर सकने वाला शरीर और एक मष्तिष्क जो एक ही काम सबसे अच्छा कर सकता है वो जो उसको प्रकृति जनित निर्धारित है. स्त्री में मृदुलता, ममता, स्थिरता, धैर्य, देह सौंदर्य, कूट कूट कर भरा है और अगर कहा जाये उसमे वही है ही तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. पुरुष बाहर का काम, दूर दराज जाकर श्रम करके, जिसमे वो अत्यंत माहिर है, अत्यंत कुटिलता, चालाकी, अत्यंत भीषण संघर्ष और कई बार जान लेवा लड़ाई करके खाने निर्वाह लायक कुछ जुटा ता है जिसे वो अपने घर लाता है.. वहीँ स्त्री एक छोटे से दायरे में काम करने में अत्यंत सक्षम है और उसका मष्तिष्क भी प्रजनन, बच्चे का जन्म, लालन पोषण और घर परिवार की देखभाल के लिए ही बना है(इन सबके चिर प्रमाणित मेडिकल तथ्य हैं).

अब इसका ये मतलब नहीं की वो बाहर निकल नहीं सकती या किसी जगह कोई काम नहीं कर सकती पर, काम की कुर्सी पर बैठना एक चीज है और उसको हमेशा कर पाना एक अलग बात. फ़िल्मी परदे पर फौजी की पोशाक पहन कर सैनिक का नाटक करना एक अलग बात है और वास्तव में युद्ध क्षेत्र में फौजी का काम करना एकदम ही अलग बात. पर बात ये है की अगर महिला काम करेगी तो फिर परिवार का पालन कौन करेगा.. क्या वो गैर जरूरी चीज है या पुरुष को अपना काम छोड़ कर, जो वो करोडो नहीं अरब साल से कर रहा है, मात्र किसी स्वप्न द्रष्टा की कल्पना पूरी करने के लिए या महिलावादियो की बेवकूफी बर्दाश्त करने के लिए, महिला बन जाना चाहिए? यानि भारत के ८० करोड़ पुरुषो को काम करना छोड़ कर घर बैठ जाना चाहिए और स्त्री को जो काम करने के लिए वैसे भी उपयुक्त नहीं है, बाहर काम करने के लिए झोंक देना चाहिए? यानि एक अनुपयुक्त व्यक्ति जिसके पास युही एक बड़ा काम करने के लिए है और जो खुद बाहरी दुनिया में काम नहीं करना चाहती अगर उससे सच में पूछा जाये तो, को जबरदस्ती नौकरियों में भेजा जाये और करोडो पुरुषो को, जो अपने अपने परिवारों के एकमात्र अर्जक होते हैं, उनके अधिकारों से वंचित किया जाये I

पर, ये महिलाओं को काम करIने की विवशता आयी कहाँ से? सौ साल पहले किसी राम मोहन राय ने महिलाओं को जिन्दा जलने से बचाया, समय बीतने पर उन्ही महिलाओं को कुछ बंगालियों ने अंग्रेजो की गुलामी करते हुए शिक्षा देने की प्रथा चलायी, आज उन्ही लडकियों को कोई शीला दीक्षित की सरकार बेतहाशा आरक्षण देकर अन्यायपूर्ण तरीके से सारी दिल्ली की स्कूली सीट बाँट देती है और.. और उसके बाद वही महिलावादी संगठन कहते है की शिक्षा दे दिया है तो उसको काम भी मिलना चाहिए.आखिर क्यों?!

वास्तव में ऐसी शिक्षा किस काम की जहाँ स्त्री में कोई स्त्र्योचित गुण न बचे हो और न ही उसमे अपने दायित्व का भान? ऐसी शिक्षा देने की क्या जरूरत जो लडकियों को भी लड़का बना देती है? और आज की संस्कृति, जो बना देती है लड़के को लड़की जैसा. ऐसी शिक्षा देने की क्या उपयोगिता जो ऐसी लड़कियां बनाये जो न तो परिवार बना सकें, न परिवार जोड़ सकें, न परिवार में रह सकें, न बड़ो का सम्मान कर सकें, न पति का हाथ बंटा सकें (घर को संभाल कर) और न ही बच्चे का लालन पालन ही कर पायें पूरी तरह और पुरे समय . ऐसी शिक्षा किस काम की जो स्त्री को घमंडी, कुटिल, निर्दयी, लड़ाकू, धृष्ट, कर्कशा बना दे और स्त्र्योचित हर गुण को बाजारू बना दे?
ऐसी शिक्षा दे कर मारिया सुसई राज, आरुषी, मधुमिता , राखी सावंत, सुशीला दोषी, मायावती, जयललिता, इंदिरा गाँधी या फिर एक गुडगाँव की बहु या मेरठ की मिस मेरठ-अंजू ऐसी ही और भी कई बना ना चाहते हैं हम? स्त्रियों को शिक्षा का मकसद उनको लड़के से प्रतिस्पर्धा में खड़ा करना तो नहीं था? आखिर ऐसे गुण बना कर या बिगाड़ कर, और अधिक पुरुष ही तैयार करना क्या प्रकृति के विरुद्ध काम नहीं है? अब तो मानव भगवान को मानता भी नहीं तो क्या खुद ही भगवान समझने लग गया है खुद को या शैतान हो गया है?

आखिर यह मानव स्वयं ही स्त्री को पैदा करता है तो उसे स्त्री जैसा संजो कर रख क्यों नहीं सकता? आखिर स्त्री को पुरुष के जैसा ही दिखाने की ड्रामेबाजी का मतलब क्या है? या महिला को पुरुष जैसा बन जाने को मजबूर करने की इस जिद का मतलब क्या है? यह जिद बड़े शहरो में खास कर है जहाँ एक स्त्री एक अनुपयोगी खपतकारी सदस्य होती है, जहाँ एक पढ़ी लिखी बेटी या बहू पैसा कमाने का एक बड़ा जरिया दिखती है, जहाँ परिवार का पालन एक क्षुद्र काम समझा जाता है और जहाँ स्त्री को भी पुरुष जैसा दिखने, होने या करने का दबाव होता हैI स्त्रियों को पुरुषो से बेहतर कामगार समझने के भी कई कारन हैं पहला, अभी हमें स्त्रियों के बारे में असलियत मालूम ही नहीं खुद स्त्रियों को नहीं मालूम इसलिए काम पर आयी सीधी सादी, भोली भाली, किसी से न लड़ने वाली, कम पैसे पर काम करने वाली, सारी बाते मानने वाली एक महिला कर्मचारी अत्यंत शिष्ट, काम में एकाग्र, संतोषी, समझदार व प्रतिभावान प्रतीत होती हैI वहीँ, एक पुरुष जो के काम भी बड़ा करता है और उसे पैसा भी समुचित स्वाभाविक रूप से चाहिए, एक घाटे का सौदा दीखता हैI तो बड़े शहरो में पैदा हो रही ये विकृतियाँ मीडिया और इन्ही तरह के प्रसार साधनों से देश में फ़ैल रही हैं और समाज को दूषित कर रही हैं. जब स्त्री अच्छी कामगार नहीं हो सकती तो अच्छी बौस क्या करके होगी? हा, ऐसा नहीं है की कभी कोई अजूबा नहीं हो सकता या कोई फ़िल्मी चमत्कार नहीं कर सकता ..आजकल ऐसे लम्पट, का-पुरुषो की संख्या बढ़ गयी है जो निर्लज्ज, मान विहीन, पौरुष से दीन और अपने प्प्रकृतिक दायित्व से रहित होते हैंI और यही पुरुष आजकल कुछ नया सनसनी खेज बनाने पकाने के लिए, मीडिया खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बहुतायत से पाए जाते हैं और उन्ही की रोज रोज की चुहलबाजी से अन्य समझदार पुरुष खासकर पुराने प्रिंट मीडिया के लोग भी दिग्भ्रमित होते जाते हैंII

आज इसी तरह के पौरुष रहित पुरुष भी बाजार में हैं जो पत्नी की कमाई पर जीते है और उन्हें शर्म भी नहीं आती..कई और हैं जो गरीबी का रोना रोकर अपने घर की महिलाओं को उकसाते हैं या मजबूर करते हैं. उन्ही का पुरुषो में कुछ हैं जो अपनी नन्ही बच्चियों का कतल करने से भी गुरेज नहीं करते और ये निकृष्ट अपनी औरतो को भी ऐसा करने से रोक नहीं पाते.

महिला काम के लिए नहीं बनी है चाहे कितनी भी औरतें फिल्मो में नौटंकी किया करें, कितनी भी औरतो को राजनीती में दया से जगह मिल जाये, चाहे कितनी ही औरतो को आरक्षण की भीख मिल जाये, समाचारों में जितना भी महिला अतिवादियो का झूठ छपता रहे या पुरुष कितने भी नपुंसक हो जाएँ… पुरुष को ही काम, व्यवसाय, युद्ध, श्रम इत्यादि इत्यादि के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, चुना जाना चाहिए और वरीयता दी जानी चाहिए..(ऐसा नहीं है की सारे पुरुष नाकारा हैं और सारी स्त्रियाँ सर्वगुण सर्व गुण संपन्न..)
पर ऐसा नहीं है की महिलाओं को उनके मनपसंद कामो से रोका जाना चाहिए या महिला को कोई काम करना ही नहीं चाहिए .. कुछ चुने हुए कार्य क्षेत्र हैं जहाँ महिला ही होती हैं जैसे नुर्सिंग, शिक्षा, सेवा, ..इत्यादि या फिर, बहुत ही विवश महिला के लिए, जिसके घर में कोई पुरुष बेटा न हो या फिर वो बेसहारा हो… फिर भी ये अत्यंत ही दुर्लभ उदहारण है और यह क्षणिक स्थिति हो सकती है ..आखिर पुरुष ही प्रकृति का कारक है और स्त्री को दुसरे पुरुष का सहारा लेना कोई अप्राकृतिक बात नहीं हैI
पर, मीडिया का स्त्रियों को बाहर काम करने के लिए उकसाना, इस तरह काम करने और अपने दायित्व से दूर हो जाने वाली महिलाओं का महिमामंडन और फिर उसके समर्थन में तर्क देना ठीक नहीं है..क्यों नहीं है इसका पता त्वरित भविष्य में अपने आप लग ही जायेगा.. पर इतना जरूर है कार्य क्षमता, कार्य गुणवत्ता, कार्य अवधि, कार्य विम्मुखता और कई बार घरेलु कारणों से कार्य में अनि रंतरता इत्यादि कारणों को देखते हुए ये कहा जा सकता है की न तो एक महिला बौस बनने लायक होती है न ही उसे सामान्य रूप में बनाया जाना चाहिए पर उसके स्त्रोचित गुणों के लिए उसका असम्मान भी नहीं होना चाहिए. परिवार में अपने प्राकृतिक दायित्वों को निभाती हमारे घरो की स्त्री अधिक सम्माननीय होनी चाहिए बजाय के पुरुषो जैसी दिखने, बोलने, चलने वाली, लड़ने, धृष्टता करने और असभ्यता करने वाली, अपने देह का प्रदर्शन देह को बेचने, देह से ब्लैक मेल करने, भ्रष्टाचार करने वाली, भंवरी, मधुमिता, आरुशी (दिग्भ्रमित और हठी),भंवरी जैसी कुल्टा (क्षमा करेंगे पर महिला ऐसी हो सकती है)और मारिया सुसैराज जैसी परम दुष्टा महिलाओं की I

किसी स्त्री को उसके क्षेत्र में तो कई चीजे बिना मांगे मिल जानी चाहिए (और मिलती भी है) पर हर जगह नहीं.. और स्वयं महिला को ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए.. स्त्री को प्रथम एक अदद स्त्री ही रहने का प्रयास करना चाहिए ना की देवी बनने की.. जो बात कही नहीं जाती पर जिसका अहसास सबको होगा ही की– “स्त्री की उछ्रिन्ख्लता के सिरे से ही पुरुष के अन्दर के शैतान को नियंत्रण रहित होने का रास्ता मिलता है” और दूसरी बात भी उतनी ही सत्य है भले ही कडवी लगे, की “अज्ञानता अभिशाप होती है”..!!

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