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मीडिया की ज्यादती !! धोनी की शामत..

आर्यधर्म
आर्यधर्म
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इंग्लॅण्ड और ऑस्ट्रेलिया में लगातार टेस्ट मैचो में हार को लेकर मीडिया खासकर इलेक्ट्रौनिक मीडिया जिस तरह से कप्तान धोनी को कटघरे में खड़ा कर रहा है उससे यही कहा जा सकता है की मीडिया समझ की सीमा से बाहर जा रहा है.
मीडिया अब मात्र मीडिया न रह कर न्यायाधीश बन गया है. हर विधा में मीडिया अब मानो निर्णायक की भूमिका निभाने लग गया है. न कोई विशेषज्ञता, न कोई योग्यता, बस कम पढ़े, लिखे, चंद बेरोजगार युवा ज्यादातर लड़कियां अब कैमरा लेकर खुद को जाने क्या समझने लग गए हैं. हर बात को चिल्ला कर कहने, हर बात को बढ़ा चढ़ा कर परदे पर भरने के शौक़ीन ये तथाकथित मीडिया वाले अब सबकी खींचने लग गए हैं और बस अपने व्यावसायिक स्वार्थो को परवान चढ़ा रहे हैं I
बीते चार पांच सालो में कप्तान महेंद्र सिंह धौनी ने जो सफलताएँ भारतीय टीम को दी हैं वो उदाहरण किसी और क्रिकेट टीम या किसी अन्य कप्तान में नहीं मिलता – वो क्रिकेट का कोई रूप हो टेस्ट, एक दिनी या ट्वेंटी ट्वेंटी I एक कप्तान के रूप में भारतीय टीम को सबसे अधिक अकेले ही सफलताएँ दिलाने वाले धौनी का प्रदर्शन बीते कई सालो में अच्छा नहीं बल्कि बहुत अच्छा रहा है I आज भी धौनी टीम इंडिया के लिए कई तरह से योगदान दे रहे हैं..देखें — एक विकेट कीपर मैच के पूरे समय मेहनत करता है और धौनी इसमें अन्य विकेट कीपरो के मुकाबले भी कहीं बेहतरीन रहे हैं वो चाहे करीबी कीपिंग हो या तेज गेंदबाजो पर. फिर, एक बल्लेबाज के रूप में धौनी ने जिस तरह से वर्तमान त्रिकोणीय श्रृंखला में आखिरी तीन मैचो में भारतीय टीम को हार के जबड़े से बचाया है उसकी जितनी तारीफ की चाहिए वो कम है. तीसरे, एक कप्तान को तो मैच से पहले, मैच के बाद और मैच के दौरान हर गेंद पर लगातार एकाग्रचित्त रहना होता है I
इतने सारे दायित्व निभा कर अपनी टीम को इतनी बड़ी सफलताएँ देने वाले कप्तान को(जिसके लिए उनको न तो एक्स्ट्रा मिलता है और न ही इसकी कभी तारीफ होती है- हा कमियां तुरंत निकाली जाती है!), जिसकी उप्लाब्धियो को ऐसा नहीं की कई दशक बीत गए हों, कुछ पराजयों का दोषी बना बलि का अकेला बकरा बनाना मूर्खतापूर्ण अत्याचार से कम नहीं है. बड़े कमाल की बात है के एक कोई शतक (महा?) लगाने के लिए करीब चालीस पारियां खाने, अपनी पिछली पंद्रह पारियों में मात्र २० की औसत से रन बनाने वाले “भगवान” सचिन तेंदुलकर, या फिर अभी तक फिसड्डी रहे(२१ का औसत) सहवाग के लिए मीडिया के मुंह से एक शब्द भी आलोचना का नहीं निकलता! और, अगर इन तीन खिलाडियों की क्षेत्र रक्षण की तरफ ध्यान दे तो साबित हो जायेगा की गंभीर और सहवाग(सिवाय एडिलेड में एक कैच के) तो बिलकुल ही लबड़धोंधों हैं और सचिन काफी सुस्त I क्रिकेट मात्र बल्ला चलाने का खेल नहीं है और एक गृहस्थ की तरह रो पीट कर कई हजार रन इकठ्ठा कर लेना भी कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है(SESPRI शोध), आखिर खेल देखने जाने वाले दर्शक या टीवी पर खेल प्रशंसक कोई आंकड़े का बही खाता तो देखने नहीं जाते I क्रिकेट या किसी भी अन्य खेल में शारीरिक कौशल जैसे क्रिकेट में मैदान पर किसी एथलीट का विश्व स्तरीय संपूर्ण क्षेत्र रक्षण प्रदर्शन या विकेट के पीछे धौनी, गिलक्रिस्ट या संगकारा जैसे महारथियो का बहुमुखी खेल, दर्शक को वास्तविक रोमांच देता है रैना, विराट, जडेजा, मनोज तिवारी, कॉलिन पोवेल, मोहम्मद कैफ, जोंटी रोड्स, अन्जेलो मैथयूज, अन्द्रेउ साइमंड्स, पॉल कॉलिन वुड, डेविड वार्नर, दिलशान, युवराज सिंह, ब्रावो, हर्शल गिब्ब्स, रिकी पोंटिंग, लू विन्सेंट जैसे विश्व विख्यात क्षेत्र रक्षको को कैच लपकता देख, सीमारेखा पर फर्राटे मार गेंद पर झपटते देख, बिजली की गति से रन आउट करते और अपना कुशल अथलेटिक प्रदर्शन करते देख कर दर्शको के पैसे वसूल हो जाते हैं. वास्तव में आंकड़ो की बाजीगरी चंद फुरसतिया लोगों की है जिन्हे खेल में कुछ समझ नहीं आता. और वास्तव में, भारत में बड़े स्वनामधन्य कई खिलाडी तो ऐसे हैं जो खिलाडियों की आदर्श शारीरिक कद काठी के आसपास भी नहीं आते और वही ये भी है, जितने भी तगड़े कुशल एथलेटिक खिलाडी रहे भी हैं उनको न जाने क्यों इस देश में पूरा सम्मान नहीं मिलता. इनमे सबसे ऊपर नाम कपिल देव, मोहिंदर अमरनाथ, बिन्नी, रमन लाम्बा, अजहर और एकनाथ सोलकर इत्यादि का आता है.
वास्तव में सचिन जैसे खिलाडियों का नाम मात्र सामान बेचने वाली कंपनियों, व्यावसायिक स्वार्थो के तहत ब्रांडिंग करने के लिए ही आवश्यकता से अधिक चमकाया जाता है और फिर उसे बेचा जाता है और फिर सीमा से बाहर जाकर उसे बचाया जाता है चाहे वो बीसीसीआई जैसी संस्थाओ को बरगला कर किया जाये या सरकार पर दबाव बनाकर या फिर जनता को बेवकूफ बनाकर I
पर, व्यावसायिकता, टेली विजन प्रसारण की सुविधा के लिए या कई क्षुद्र तरह की राजनीतीयों को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय भावना को भंग करने के लिए आज खेल के असली रोमांच, उसके सच्चे आनंद को आज इन चैनलों ने बर्बाद कर दिया हैI और अब इस पर छोटी व्यावसायिक वासनाएं हावी हो गयी हैं!! और इसलिए टीवी पर वास्तविक खेल तो देखने को मिलता ही नहीं.

इस देश की एक गलत परंपरा भी यहाँ समझ में आती है, अगर देखें तो, क्रिकेट अभी भी बॉम्बे में ही केन्द्रित है और समूचा मीडिया भी वही से संचालित होता है, तो राज ठाकरे के राज्य में गैर मराठी क्रिकेटर और खास कर- कप्तान को जरा भी स्वीकार नहीं किया जाता जबकि सचिन या अन्य खिलाडियों के तारीफ के बड़े बड़े पुल बांध दिए जाते हैं I बम्बइया (या मराठी) क्षेत्रवाद के कारन कई गैर मराठी खिलाडियों के साथ हुए पक्षपात के एक नहीं कई उदहारण हैं!!
सौरव गांगुली जैसे सच्चे राष्ट्रीय नायको के असम्मान और उनके खेल में असमय बाधा क्या इन्ही कारणों से नहीं रही है ?

आज जो बातें धौनी कह रहे हैं उनको समझना मुश्किल नहीं है.. खेल संस्थाएं और अधिकारी अपने दुधारू खिलाडियों को सामने रखकर अपना खजाना भरना चाहते हैं, इसके लिए वो टीम संयोजन के खिलाफ जाकर, यहाँ तक की कप्तान की जरूरत के खिलाफ जाकर भी कई खिलाडियों को ठूंस देते हैं, जैसे ऑस्ट्रेलिया में अभी हो रहा है.. सचिन ३८ के होकर बहुत अच्छा कर रहे हों पर विराट, जडेजा, रैना जैसो के सामने वो बत्तख ही लगते हैं. और ऑस्ट्रेलिया जैसी जगह पर जहाँ गेंद बिजली की तरह निकलती है वहां लद्धड़ खिलाडी खेल का मजा बिगाड़ देते हैं I अर्ध शतक या शतको की कोई महत्ता नहीं अगर उसमे जीत न मिले या फिर उसमे खेल देखने का मजा न आए I

sachin's bad performance in ausralia loss

ये बहुत ही आक्रोश कारी है की जब तक जीत मिलती रहे तो धौनी के साथ सचिन की भी पूजा होती रहे और अब जब सचिन का भी डब्बा गुल हो और टीम इंडिया एक अच्छी टीम होने के बावजूद जीत न पा रही हो तो मात्र कप्तान धौनी की ही आलोचना होने लगे; और वो भी घमंडी, तानाशाह इत्यादि शब्द कहकर उनको टीम से ही निकालने की बात करने करना अत्यंत उत्तेजित करने वाली हैं I
लगातार इतनी मेहनत उच्चतम स्तर पर करते रहने के बाद एक भी हार न बर्दाश्त करने वाले ये लोग, जिन्होंने कभी एक बार क्रिकेट का बल्ला तक नहीं पकड़ा, वो जिस तरह से खिलाडी का बिना निष्पक्ष आकलन किये मस्तक मांग रहे हैं उनको जानना चाहिए की हर मशीन आराम मांगती है और कोई भी भगवान नहीं होता. ये मीडिया एक कर्कशा स्त्री की तरह व्यव्हार कर रहा है जिसे कभी भी चैन नहीं आता और जो बस ऊँची आवाज में चिल्लाना, मीन-मेख निकलना और झूठी जिद को मनवाने के लिए (रूठना या) अनावश्यक हो हल्ला मचाना जानती है I
मेरे विचार में इन तीन खिलाडियों का रोटेशन करना वाकई अच्छा कदम है पर प्रारंभिक जोड़ी गंभीर और सहवाग को सचिन के लिए बिगाड़ना नहीं चाहिए(और जो पिछले दो मैचो में साबित भी हो चूका है जब सचिन साब ३ और २२ पर निकल लिए हैं) I नए खिलाडियों को आगे के लिए तैयार किया जाना चाहिए और स्थापित खिलाडियों को जरूरत पड़ने पर बाहर भी करना चाहिए पर टीम के मध्य क्रम में एक अनुभवी या स्थिर खिलाडी रखना जरूरी है I

भारतीय क्रिकेट टीम और कप्तान धौनी की सीमा से अधिक आलोचना करना और उनके खून की मांग करने वालो को पहले अपने गिरेबान में खुद झांक लेना चाहिए. ये हमारी भारत की टीम अभी भी विश्व की सर्व श्रेष्ठ टीम हैI वैसे उसे धरातल पर आने में समय नहीं लगता, पर हमें ये मालूम होना चाहिए की कोई भी सर्व शक्ति मान नहीं हो सकता जब विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया दुनिया में हर जगह नहीं जीत सकता और भारत में आ कर ही मुंह की खाता है और उसे हराने वाले यही योद्धा होते हैं, तब अपनी टीम पर ऊँगली उठा कर उसे हतोत्साहित कर वाह वाही लूटने का क्या मतलब है? जब बीसीसीआई भारतीय क्रिकेट खिलाडियों को सर्कस का बन्दर बनाकर दुनिया में हर जगह भेज भेजकर पैसे कमाने से बाज नहीं आता और खिलाडियों को आवश्यक छुट्टी भी नहीं देता तो उनके कमजोर प्रदर्शन का जिम्मेदार कौन है? और इस तरह के प्रदर्शन के बाद सीधा धौनी के निष्कासन की मांग तो अत्यंत ही आपत्तिजनक है जैसे की धौनी से अच्छे कप्तान घर में ठुंसे पड़े हैं और इस टीम से बढ़िया भारत में कई मोहल्ला टीमे थोक के भाव रखी हुई हैं!

इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़, स्टार, आई बी एन, आदि चैनल वालो की बातें भी अत्यंत हास्यास्पद हैं.. इन मीडिया वालो को रैना, कोहली, जडेजा, रोहित शर्मा, उमेश यादव, विनय कुमार की चुस्त फील्डिंग जरा भी दिखती ही नहीं जबकि इसी के अभ्यास में खून पसीना एक हो जाता हैI एक सामान्य गैर खिलाडी विश्लेषक भी बता देगा की हर एक ऐसा क्षेत्ररक्षक २०-२५ रन बचाता है और फिर यही खिलाडी बल्लेबाजी में अच्छे रन भी बनाते हैं (और जडेजा तो एक अच्छा गेंदबाज भी है) और वो अगर ३५-४० भी बना दें तो बड़े उपयोगी साबित होते हैं, फिर भी इन स्वयं नाम धन्य खेल विशेषज्ञों को सीनिअर खिलाडी बड़े उपयोगी नजर आते हैं.. हा ठीक है की उन्हें पूरा ही बाहर नहीं किया जा सकता पर रोटेशन पर तो रखा ही जाना चाहिए और युवा खिलाडीओ को भविष्य को ध्यान में रख संवारना ही होता है I
आंकड़ो के आधार पर, और वो भी मात्र बल्लेबाजी में बटोरे रन से अगर चयन होता रहे और मैदान में किये क्षेत्र रक्षण के प्रदर्शन को नजरंदाज करके कैफ, रॉबिन उत्थप्पा इत्यादि को बाहर निकाला जाता रहे तो भारतीय क्रिकेट टीम के भविष्य और साथ ही इस खेल का भी क्षय होने से कोई रोक नहीं पायेगा I

हमें याद है, कैसे धौनी की इसी टीम ने टी २० का विश्व कप तब जीता था जब इस टीम का टी २० में कोई खास दखल भी नहीं था और सबसे बड़ा, ना ही इस जनानी मीडिया की तरेरती ऑंखें उन पर लगी थींI वहीँ, जब सौरव गांगुली की टीम २००३ में उपजेता रहकर २००७ में खेलने उतरी तो समूची मीडिया के बनाये बेवकूफाना अति रंजित अपेक्षा के दबाव से टीम पहले दौर में ही बाहर हो गयी(और, ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है!). और फिर यही मीडिया कप्तान गांगुली का खून का प्यासा बन गया. मीडिया का इस तरह का आचरण दूसरो का खून पीकर मोटा होने जैसी बात है I पर आज यही हो रहा है, २४ घंटे चैनल पर कुछ न कुछ भरने और कुछ न कुछ खबर बनाकर दिखाने की धृष्ट पिपासा अब सर से ऊपर चली गयी है और अब तो चैनलों पर बनावटी, खिचड़ी खबर को देखना भी कष्टप्राय हो गया है.

पुराने खिलाडी भी, खासकर वो जो किसी टीवी चैनल पे आमंत्रित हो जैसे सबा करीम, चेतन शर्मा या यशपाल शर्मा भी खुद का याद नहीं रखते की उनकी ऑस्ट्रेलिया और इंग्लॅण्ड में क्या गत बनती थी और उन्होंने कब विदेशो में जीत हासिल की थी?

मैं आशा करता हु की बीसीसीआई संतुलित रवैया रखेगी और प्रशंसक भी सहानूभूति पूर्वक पेश आएंगे..(वैसे ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट ने पोंटिंग को एक दिनी श्रृंखला से बाहर कर बीसीसीआइ का काम आसान कर दिया है) I
आखिर खेल (और युद्ध) कोई फिल्म में भांडो का कमर हिलाना नहीं है के सौ टेक लेने के लिए कितनी भी कमर हिला दी.. यहाँ तो बस एक ही मौका मिलता है और जी, यहाँ मैदान में असली मुकाबला होता है, कोई परदे के पीछे छुप छुपा कर करने वाला काम नहीं होता, खिलाडी की कोशिश मायने रखती है, मीडिया जिसके लिए फ़िल्मी कलाकारी ही सर्वोच्च पूजनीय आदर्श है उसके लिए ये समझना मुश्किल है.. पर, उसे भी अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में रहना पड़ेगा.

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