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समलैंगिकता पर उहापोह..(वैज्ञानिक, न्यायिक, धार्मिक-नैतिक-सामाजिक विमर्श)

आर्यधर्म
आर्यधर्म
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नाज़ फौन्डेशन इंटरनैशनल नामक संस्था और समलिंगी अधिकारों के लिए काम करने वाले कुछ संगठनों ने पिछले कुछ समय से एक आन्दोलन छेड़ रखा है जिसने एक नयी बहस शुरू की है और जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी चल रही है I
नाज़ फाऊंडेशन इंट. ने भारतीय दंड विधान की धारा ३७७ को अभियोज्य-अपराधमुक्त (देक्रिमिनालिज़े) करने की वकालत की है. आखिर क्या कहना है नाज़ इत्यादि. का और क्या है उनकी दलील?

नाज़ इंटरनैशनल का कहना है की सहमती से बनाया गया समलिंगी सम्बन्ध व्यक्ति का मौलिक अधिकार है.
आगे, उसका कहना है- समलिंगी सम्बन्ध प्राकृतिक और सामान्य हैI
समलैंगिक को अधिकार है एक सामान्य नागरिक की तरह जीने और सुरक्षा का.

समलैंगिक एक अल्पसंख्यक समूह हैं I
विश्व में कई संपन्न, उन्नत, आधुनिक देशो में समलैंगिकता को मान्यता प्राप्त है और इसलिए ऐसा भारत में भी होना चाहिए और इसके लिए इन संगठनो ने कई विदेशी संस्थाओका समर्थन भी जुटा लिया है.

अब सबसे पहले जानते हैं की इस स्थिति के (चिकित्सीय-शरीर क्रिया) वैज्ञानिक परिपेक्ष्य क्या हैं?
जंतु जगत (एनिमल किंगडम) पिछले सवा अरब साल से पृथ्वी पर है और जैविक उद्भव के प्राकृतिक सिद्धांतो का पालन करते, यानि सुधार और शरीर क्रिया की सबसे उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए और स्वयं का वंश आगे बढाने के परम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु, कोई ६०० करोड़ साल पहले (एक कोशीय) लिंग रहित जीवावस्था से द्विलिंगी व्यवस्था की उत्पत्ति हुई है. द्विलिंगी व्यवस्था का बहुत बड़ा जैविक महत्त्व है जिसने जन्तुओ के अस्तित्व के मायने बदल के रख दिए.. आज, प्रकृति में बस दो ही लिंग होते हैं I
आज कई करोडो साल बाद, मनुष्य में दो लिंग नर और मादा यानि पुरुष और महिला ही पाए जाते हैं, पर, वयस्कावस्था में इन दो सम्पूर्ण लैंगिक पहचान तक पहुँचने के लिए शरीर में कम से कम पचास प्रमुख दशाएं बारी बारी से आती हैं (stages) जिनके साथ कई हजार अन्य समर्थन कारी कारको का ठीक काम करना बेहद जरूरी होता है. इनमे से किसी भी महत्वपूर्ण कारक के बिगड़ने से एक निश्चित लिंग पाना मुश्किल हो जाता है. इन कारको में कई गर्भावस्था में होते हैं और कई जन्म के बाद, प्राकृतिक या भौतिक वातावरण में! ये बड़ा महत्वपूर्ण तथ्य है की पुरुष लिंग एक उन्नत स्थिति है यानि इस स्थिति को पाने के लिए अधिक संसाधन चाहिए होते हैं, और जब किसी कारण वश, फीटस यानि भ्रूण यदि नर नहीं बन पाता तो नीचे की स्थिति में गिर कर मादा ही रह जाता है..
तो, पहला भ्रूण को अपने जेनेटिक संरचना से नर या पुरुष होना होता है दूसरा उसके समुचित पारिस्थितिक पालन से I
अगर इन सारी दशाओं में कहीं भी कोई विघ्न पड़े तो कोई एक लिंग या सेक्स पाना असंभव हो जाता है.

यही अधूरे या विकृत व्यक्ति ही विकारलिंगी कहलाते हैं जिन्हें कई प्रकारों में क्लासिफाई किया गया है — इंग्लिश में trans gender, hermaphrodite , ambiguous genitalia ,Turner ‘s , और अन्य कई..
इसका मतलब ये हुआ की “वो” कोई तीसरे लिंग नहीं हैं वो दो लिंगो में से कोई नहीं हैं, इनसे निम्न हैं, खंडित हैं पर ये कहना अत्यंत गलत होगा की वे कोई एक जैसे सदस्यों से बने कोई समूह हैं और इसलिए उनको अल्पसंख्यक समूह कहना भी गलत होगा.
मोटे तौर पर, दो तरह के विकार लिंगी हो सकते हैं. शारीरिक विकार सहित और मानसिक विकार सहित.
यानि कई लोग ऐसे होंगे जिनके भीतरी या\ और बाहरी लिंग विकृत या अपूर्ण हो और दुसरे ऐसे जिनके लिंग तो ठीक हो पर मानसिक विकृति के कारण उनका आचरण अपने जैव निर्धारित लिंग के अनुरूप न हो. वास्तव में पहले अलिंगी कहे जा सकते हैं और दुसरे वाले, समलिंगी.

अब, क्या ये सामान्य है? इस छोटी से विवेचना से ही एक सामान्य बुद्धि व्यक्ति को ज्ञात हो जायेगा की समलिंगी असामान्य, अप्राकृतिक और यौन- विकृत होते हैं ! पर हा, उनके शरीर के काफी अंग लगभग सामान्य lag सकते हैं! पर इनका मष्तिष्क बिलकुल ही उलटपुलट हो सकता हैI इनमे से कई पूरे हिजड़े होते हैं और कुछ आंशिक और इनके यौन क्रिया के विकल्प द्विलिंगियो से अलग हो सकते हैं I पर मानसिक रूपसे विकृत समलिंगियो का लिंग सामान्य होने के बावजूद वे सामान लिंग के साथ यौनाचार करने की चेष्टा करते हैं. प्रकृति में अविकसित जन्तुओ में सामान लिंग से यौन चेष्टा देखी गयी है पर वो एक क्षणिक स्थिति होती है और जाहिर तौर पर होती है पूरी अप्राकृतिक.

अब, किनके इस लैंगिक विकार से ग्रसित होने की सम्भावना हो सकती है? मनुष्यों के विचार से, बच्चो का लालन पालन बिलकुल सही तरीके से होना जरूरी है. लड़की का लालन पालन स्त्री संस्कारो सहित जो अधिकतर माँ दवारा प्रदत्त होती है और बालको के लिए पूर्णतः पिता द्वारा*.
गिरना केवल उच्च स्थिति यानि पुरुष को होता है इसलिए पुरुष संस्कारो की कमी और पिता के सक्रियता के आभाव में एक पुरुष बच्चे के बालक के रूप में विकास में कमी आ सकती है इ* (*अन्यान्य लेख में)
पुरुष समलैंगिकता के कई कारन हो सकते हैं सबसे बड़ा कारन होता है कमजोर पिता या बच्चे की परवरिश के प्रति उदासीन रहने वाला पिता I
क्योंकि पिता का ही सबसे बड़ा योगदान होता है पौरुष कारी संस्कार बेटे को देना और आज कुछ अत्यंत उदार, उच्च शिक्षित या अत्यंत व्यस्त और निर्लिप्त पिता जाने अनजाने इसी तरह की विकृति को जन्म दे रहे हैं! घर में माँ के अंकुश धारी या एकाकी प्रभाव के कारन या कई सारी लडकियों में की गयी बेटे की परवरिश भी इस विकार को पैदा करने का बड़ा कारण होते हैं. इसके अलावा आजकल के युग में कुछ स्त्रीवाची पेशे जैसे मॉडलिंग, फैशन, मीडिया या फिल्म में भी ऐसे कच्चे पुरुष पैदा हो सकते हैं (उदाहरन- रोहित बाल–)! इसके अलावा कई और विकृति कारक तत्व हो सकते हैं I
पुरुष अगर अपनी प्रकृति सुलभ आक्रामकता और स्त्री पर अपने दबदबे को कम कर दे तो यही विकृति स्त्री में भी हो सकती है. और आज खतरनाक संकेत है की, पुरुषोचित वातावरण में भारी कमी आ रही है* I
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जब ईश्वर ने दो लिंग पुरुष और स्त्री किसी विशिष्ट सृष्टिकारी प्रक्रिया के लिए बनाये हैं तो समलैंगिक अप्राकृतिक, अधूरे और रोगी ही कहलायेंगे.
अब रही बात, उसके अपराध बोधक होने की. देह- विकारलिंगी को तो, काफी हद तक, ठीक नहीं किया जा सकता पर मानसिक-विकार लिंगियो को जितना अधिक पौरुष और सम्बंधित परिस्थितियों से गुजरा जायेगा उतना उनके सुधरने की आशा होती है. इसलिए ‘हिंसात्मक-उग्र व्यव्हार, लडको के साथ मेल-मिलाप, खेलकूद और अगर देर नहीं हुई है तो चिकित्सीय परामर्श और दवाइयों से कुछ सुधार हो सकता है.

हमें ये जानकर आश्चर्य होगा की प्रकृति भी ऐसे विकृत व्यक्तियों को विपरीत आचरण से रोकती है. जैसे सृष्टि में कोई भी चीज अधूरी हो सकती है ईश्वर के बनाये कई पिंड खंडित हो सकते हैं वैसे ही इस तरह के पुरुष वैसे सामान्य होते हुए भी विकृत हो सकते हैं.
सबसे खतरनाक पहलू– एड्स की बीमारी सबसे अधिक इन्ही समलिंगियो में पाई जाती है और सबसे अधिक मौते भी उन्ही में पाई जाती है जबकि कई दुर्घटनावश शिकार हुए बच्चे आश्चर्यजनक तरीके से इस बीमारी से बच भी चुके हैं!!

इतिहास, पुरातन धर्म और नैतिक शिक्षा में इस कुव्यवहार की प्रवंचना के ढेरो किस्से मौजूद हैं. पैगंबर लू-त (लू तले इस्लाम) की धर्म, अनुशासन की शिक्षा न मानने वाले सोडोम शहर के वासी एक ही रात में काल कवलित हो गए और ज्वालामुखी के लावे से जिन्दा ही जलकर रख बन गए और ये कथा नहीं वास्तविक इतिहास है!
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कोई भी धर्म तो इस अप्राकृतिक, अनैतिक और एक विकृति को सहमती दे ही नहीं सकता. और देना भी नहीं चाहिए. जो मूर्ख खजुराहो में, वात्स्यायन की कृतियों में, हिन्दू धर्म की समलैंगिकता के प्रति स्वीकार्यता देखते हैं वो महामूर्ख और अपराधी हैं.. खजुराहो की वो आकृतियाँ पुतलियाँ और गण हैं जो काम मुद्राएँ दर्शाने के लिए उकेरे गए मात्र हैं I

सुप्रीम कोर्ट में इसपर सुनवाई हो रही है और मैं पूरी जिम्मेदारी और विश्वास से कुछ बातें कह सकता हु. पहला,ये की न्यायालय कई मामलो में न्याय करने योग्य नहीं होते. दिल्ली न्यायलय का निर्णय क्षुद्र दृष्टि वाला है. हर निर्णय किसी को पीड़ित मानकर, या हर बार शिकायतकर्ता को ही सुख पहुँचाने के लिए ही नहीं किये जाने चाहिए! मैं खुद किसी (अधिकतर) न्यायाधीश को योग्य नहीं समझता जो प्राकृतिक न्याय के साथ भी न्याय कर सके पर मैं आशा कर्ता हु की ऐसा हो. कई मामले इन न्यायालयों की अधिकार सीमा के बाहर होते हैं पर अफ़सोस उनको मालूम नहीं होता,

इस सम्बन्ध में कई कुतर्क भी दिए गए हैं, उसके जवाब मेंसमलैंगिकता मूल अधिकार नहीं हो सकते, हैं भी नहीं. अगर समलैंगिकता अपराध नहीं तो फिर बाल-यौन शोषण, बलात्कार भी अपराध नहीं होने चाहिए जबकि इन सबके मूल में भी कुछ मानसिक कमियां होती हैं!! समलैंगिको को यौन या लैंगिक अल्पसंख्यक कहकर सहानुभूति देना भी अतार्किक होगा ऐसा है तो बलात्कारी, बाल यौन अपराधी, जेल में बंद अपराधी और घुटे आतंकवादी भी अल्पसंख्यक हो जायेंगे!!
आपसी सहमती से हम सब कुछ नहीं कर सकते क्या हम अपनी ही बीवी के साथ सड़क पर ही, भले ही आपसी सहमति के, खुले में यौनक्रिया कर सकते हैं? क्या हमें करना चाहिए?

मनुष्य सामाजिक वर्जनाओ के दायरे में होता है और उसका हर आचरण समाज की प्रस्थापित मान्यताओ, आदर्शो और वर्जनाओ के अन्दर ही होना चाहिए. और भले ही, कोई समलिंगीयो के प्रति सस्ती लोकप्रियता के लिए अति-भावनात्मक वशीभूत होकर उनके लिए कुछ भी करने की स्वछंदता मांगे तो ये ब्लैक मेल के सिवा कुछ नहीं और आजका मीडिया और ये तथाकथित मानव वादी संगठन आज यही अपराध कर रहे है.

अगर, समाज के किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति दायित्व हैं तो वही जिम्मेदारी किसी तथाकथित ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के बहुसंख्यक जनसमुदाय के प्रति भी तो हैं?

ये कड़े शब्द लग सकते हैं, पर एक मनो- चिकित्सक, उद्भव-वैज्ञानिक, रीप्रोडकटिव बायोसाइंटिस्ट होने, और साथ में समाज और धर्म के गहन मूल्यों को थोडा जानने के नाते मैं कह सकता हु की (बावजूद इसके की मैं एक करुणात्मक मानववादी रवैया रखना चाहता हु) ऐसे विकारियो को या तो हस्पताल में रखना चाहिए, या जेल में या फिर अगर उन्हें किसी भी तरह से विकारमुक्त न किया जा सके तो उन्हें सख्त निगरानी में रखा जाना चाहिए (अगर उनके लिए पुराने जमानो जैसे मृत्यु का विधान न हो सकता हो तो!) जहाँ वो मात्र अपने (इस) आचरण को समाज में न फैला सकें I हा पर उनके सामान्य अनुशासित जीने से कोई हानि नहीं हैI और इसके सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है की “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता..! ” इसलिए शालीन भारतीय समाज में सडको पर “गे परेड” इत्यादि भोंडे विदेशी बीमार प्रदर्शन न किये जाएँ और एक शिष्ट समाज के रूप में हमें कुछेक मामलो में अत्यंत सख्त होना ही पड़ेगा.

और, इन्ही समलिंगियो में बेतहाशा बढ़ रही एड्स की बीमारी की पहचान मात्र के लिए इसे वैध करना प्रशासन की एक घोर पलायनवादी और परम-आत्मघाती सोच है!!!

क्योंकि समलैंगिकता एक तथाकथित बौद्धिक, अति- आधुनिक, समृद्ध, व्यवस्थित या वास्तव में एक पौरुषहीन, सुस्त समाज की सबसे बड़ी बीमारी है जो बीमारी लगती नहीं है(अल्प बुद्धियो को). इसलिए बीमारी होने के बावजूद, इसे अपराध्य रखा जाना चाहिए ताकि इस बीमारी के फैलने के कारणों को अपने बच्चो की तरफ फैलने से रोका जा सके I
[वास्तव में, इसके स्थापित ज्योतिषीय कारक भी हैं!*]

Shani Bhagwan
हमें अपने बच्चो के लालन पालन में सजग होना चाहिए, समाज से पुरुषोचित गुणों का ह्रास रोकने के कड़े उपाय किये जाने चाहिए जो आज ख़त्म होते जा रहे हैं, विकार-लिंगियो को “खोजकर” उन्हें इलाज के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए और बस, शारीरिक विकार-लिंगियो को ही इससे छूट मिलनी चाहिए वो भी शालीनता के दायरे में. और, स्त्री समलैंगिकता को तो कत्तई बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए, खुले आम मीडिया इत्यादि में इसके समाचार और फिल्म, पत्रिकाओं इत्यादि में इसका प्रदर्शन दंडनीय होना चाहिए.

हमें कई सवाल पहली बार मिलते हैं…. हम इस विकृति को अपराध मुक्त करके गलत सन्देश नहीं दे सकते… वास्तव में समलैंगिकता का बढ़ना पुरुषत्व की सामाजिक कमी का लक्षण है और वास्तव में, उस जन समुदाय के सर्वनाश का लक्षण भी. और, ऐसा सृष्टि सञ्चालन में पहले एक बार नहीं, कई बार* हो चुका है!!!

आशा है, भारतीय उच्चतम कोर्ट पाश्चात्य बेवकूफी नहीं करेगी और आशा है वो वैज्ञानिक और धार्मिक तथ्यों के साथ साथ भारतीय सामाजिक मूल्यों और नैतिकता के मूल्यों को भी अपने निर्णय में गंभीर महत्त्व देगी.

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