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क्या हमीं देश के द्रोही हैं?

आर्यधर्म
आर्यधर्म
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आज बा हालात ऐसा कुछ देखने को है जो हमें काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है- मजबूर करता है सोचने को खुद के ही बारे में.
एक तरफ एक क्रिकेट खिलाडी सचिन है जिसके एक शतक के लिए दुनिया जहान की आत्माएं भारत में उतर आयी हैं केवल इस महान घटना के वर्णन के लिए, बंगला देश की विश्व रैंकिंग में नीचे से दूसरी टीम के खिलाफ ये महा शतक एक साल बाद कड़ी तपस्या से आ भी गया और भारत के कई पुरखे तर गए.. मीडिया के तो मानो कोई मन चाही मुराद पूरी हो गयी पूरा बम्बइया मीडिया भगवान के अवतरण पर जयजयकार कर उठा I पूरा देश एक व्यक्तिगत उपलब्धि पर चिहुंक उठा और ये भी नहीं देखा गया की बंगलादेश की फिसड्डी टीम ने भारत को बुरी तरह धो दिया है. हाँ पर, हो सकता है ये हार कोई बड़ी बात न हो.. हो सकता है हम पराजयों को शान से स्वीकार करना चाहते हों… पर ऐसा लगता तो नहीं.. क्या एक हारे हुए देश के पास कुछ और उपलब्धि पाने के लिए नहीं है ?
और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है किसी का शतक पर देशकी\ टीम की हार. इस नस्ल के लिए देश शायद कोई मायने ही नहीं रखता I किसी बम विस्फोट के बाद भी हम या टीवी चैनल गाने और चुटकुले दिखाना बंद करते हैं? क्या हम राष्ट्रीय क्षति को महसूस करते हैं? क्या पता, पर देश की क्षति पर हमें व्यक्तिगत लाभ अधिक सुन्दर लगते हैंI क्या हम हर रोज यही नहीं करते? राष्ट्रीय चिन्हों, पुरातात्विक पहचानो- धरोहरों को मिटाते, राष्ट्रीय पदों पर बैठकर राष्ट्रीय संसाधनों की लूट करते और हर रोज यही भ्रष्टाचार करने वाले सरकारी लोगो को हम अपना समर्थन देते रहते हैं I बावजूद इसके की हमें जागरूक करने की कोशिश कई बार की जाती है? हम खुद ही सोचें की देश हमारे जेहन में कहीं है भी? नहीं.. शायद..ये देश वेश तो बस फौजियों या भूवैज्ञानिको के मतलब की बात है!! बिजली चोरी, पानी चोरी, टैक्स चोरी, घूस संस्कृति… हम तो देश को रोज ही चूना लगाते हैं. और घर पर जा कर शान से इसका बखान भी करते हैंI
राष्ट्र हित की कीमत पर हम अपना खजाना भरते हैं. क्या हमें दीखता है की ये कैसे हमारे राष्ट्रीय-सामाजिक जीवन को क्षति पहुंचा रहा है?

दूसरा उदाहरण है तृणमूल कौंग्रेस के और हमारे(अब जल्दी ही निवर्तमान) केंद्रीय रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी जी का. दिल्ली और किन्ही राज्यों में कुछ महिलाओ द्वारा शासित राज्य हैं जो इस देश की कुव्यवस्था के प्रतीक हो गए हैं. सत्तर सालो से यह देश अपनी समस्याओं में घिरता ही जा रहा है और दिल्ली की सरकारे केवल कुर्सी को अलंकारिक बनाने और उसकी सिंकाई करने के अलावा कुछ और नहीं कर रहीं. हर समस्या को बस बढ़ने दिया गया है और उसके पक जाने पर उससे बस व्यक्तिगत और राजनैतिक फायदा उठाया गया है. वास्तव में अपने शासनिक और राजनैतिक कर्तव्यों से मुंह चुराया गया है और अपनी हर ऐसी नाकामी को राज्य निहित अधिकारों और राजकीय शक्तियों से दबाने और छुपाने की कोशिश ही हुई है . हर केंद्रीय सरकार रेलवे और टेलीकॉम जैसे पूँजी से भरपूर मलाईदार महकमो से अपने सर्व स्वार्थ साधन करती रही हैं. हर सरकार जरूरी सख्त या नीतिगत फैसलों जो राजनैतिक रूप से तो उनके लिए फायदेमंद नहीं हो पर देश के लिए अत्यंत जरूरी हो सकते हैं, को करने से मुंह चुराती रही हैं I बताने की जरूरत नहीं की रेलवे का नुकसान यही कोई एक लाख करोड़ का है और पिछली कई बारियो में ये जमीनी नुकसान इससे भी कहीं अधिक होगा! और टेलीकॉम विभाग के हिस्से आए कई लाख करोड़ के घोटालो ने जो उसका भला किया है उसके बारे में अपने सुधी पाठको को अब फिर से बताने की जरूरत मैं नहीं समझता I पर ये सरकारे और ये नेता हमेशा अपने राजनैतिक लाभ को ही आगे रखते हैं और प्रकारांत महत्वपूर्ण विभागों को वैसे ही बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया जाता है. आखिर उनकी जिम्मेदारी तो पांच साल की है न उसके बाद तो सारा दोष और सारा बोझ अगली सरकार का!! और उस अगली सरकार के किये का सारा दोष और बोझ उससे अगली सरकार का! सैकड़ो ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिन पर यह देश शुतुरमुर्गी रवैया अपनाता रहा है.. सच्चाइयो से भागना हमारी नस नस में घुस गया है.. जनसंख्या जैसे मुद्दे जिनको बढ़ने से रोकने में हर तरह से नाकाम होने पर ये सरकारे अब जनसँख्या सम्बन्धी सारी जानकारियों को छुपाने में ही लग गयी हैं, कुछ विशिष्ट जानकारियों जैसे अल्प संख्यक सूचकांको को तो एकदम ही गलत बताया जा रहा है. और तो और, अब इस भीषण समस्या को स्वीकारने की जगह या तो इसे समस्या मानने से ही इंकार किया जा रहा है या फिर पलायनवादी तरीके से इसका महिमामंडन होने लग गया है!
रेलवे देश पर जनसँख्या के बृहद भार को ढोते अधमरी हो चुकी है. देश के हर गरीब बेरोजगार हर काम में अक्षम किसी पार्टी के कार्यकर्ता आदि के जीवन निर्वाह बन चुके हैं कई सरकारी विभाग और खासकर हमारी भारतीय रेलवे !! अंग्रेजो के समय बनी रेलवे आश्चर्यजनक रूप से अधिकांश या लगभग सारी पटरिया अंग्रेजो की बनायीं लाइनों पर ही अभी चल रही है और भारतीयों ने उसमे बस कांट-छांट ही की है!! जब दो सौ साल पुरानी पटरियां या पुल गिरते हैं तो बड़ी खबरिया “लॉन्च” के बाद बड़े समारोह पूर्वक (समितियां बनाकर) उसपर “विचार” किया जाता है (और उसपे भी होता कितना है ये हम सब को मालूम है!)

बड़े नेताओ द्वारा बजट में अनाप शनाप घोषनाओ के बाद कई झूठे सपनीले वादों से अपना महिमा मंडन करने के बाद रेलवे को वापस उसी हांल पर छोड़ दिया जाता है. ये हम भी जानते हैं क्योंकि वास्तव में जमींन पर कुछ होता दीखता नहीं. पर हा हर रेल मंत्री और हर राजनैतिक दल उस एक दिन पूरी सुर्खी जरूर पा जाता है!! और जब जमीनी हकीकत से निबटने के जरूरी कदम उठाने के लिए कोई मंत्री हिम्मत करता है तो किसी पुराणिक विधान की तरह उसको राजनैतिक लाभ की बिसात पर ही खेलने को कहा जाता है I “राष्ट्रहित का बंटाधार करना है ” किसी ब्रह्म आदेश की तरह उसको याद दिला दिया जाता है. आज ममता दीदी जैसी महिलाएं इसमें कहीं धृतिसंपन्न नजर आती हैं जिनका राष्ट्रीय समस्याओ को सुलझाने की न तो योग्यता है और न ही इच्छा, बल्कि वो तो इसको सरासर अपराध मानती है I आखिर दिनेश त्रिवेदी को रेल सुधारो के लिए बधाई की जगह सत्ता की हेकड़ी में धमकी देना, पूरे देश के सामने अपमानित करना और उनको इस्तीफे को मजबूर करना क्या साबित करता है? क्या हमें वास्तव में देश का कुछ ख्याल है?
पर जैसी नियति है शायद उसी स्वार्थी व्यक्तिनिष्ठ प्रवृत्ति वश सचिन तेंदुलकर को भारत का रत्न भी दे दिया जायेगा और दिनेश त्रिवेदी को अपमान सहित केंद्रीय मंत्री पद से पद निकाला भी. पर इस सबके बीच हमारे सोचने समझने करने के लिए क्या कुछ नहीं है ?
क्या हम खुद ही तो इस देश की बर्बादी की नींव तैयार नहीं करते ? क्या हममे ही कई देश द्रोही नहीं है?

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